धत्मोपदेशविख्यातं कार्याकार्यं शुभा शुभाशुभम।।
इस शास्त्र का विधिपूर्वक अध्ययन करके यह जाना जा सकता है की कौन - सा कार्य करना चाहिए और कोनसा कार्य नहीं करना चाहिए। यह जानकर वह एक प्रकार से धर्मोपदेश प्राप्त करता हैं कि किस कार्य के करने से अच्छा परिणाम निकलेगा और किससे बुरा। उसे अच्छे - बुरे का ज्ञान हो जाता है।
मुखशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोंस्प्यवसीदत।।
मुर्ख छात्रों को पढ़ाने तथा दुष्ट स्त्री के पालन - पोषण से और दुःखियों के साथ संबंध रखने से, बुद्धिमान व्यक्ति भी दुःखी होता है। तात्पर्य यह है कि मुर्ख शिष्य को कभी भी उचित उपदेश नहीं देना चाहिए, पतित आचरण वाली स्त्री कि संगति करना तथा दुःखी मनुष्यों के साथ समागम करने से विद्वान तथा भले व्यक्ति को दुःख उठाना पड़ता है।
दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्युश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः।।
दुष्ट स्त्री, छल करने वाला मित्र, पलटकर तीखा जवाब देने वाला नौकर तथा जिस घर मै साँप रहता हो, उस घर में निवास करने वाले गृहस्वामी की मौत का संशय न करें। वह निश्चय ही मृत्यु को प्राप्त होता है।
आपदर्थे धनं रक्षेद दरान रक्षेद धनैरपि।
आत्मनां सततं रक्षेद दारैरपि धनैरपि।।
विपत्ति के समय काम आने वाले धन कि रक्षा करें। धन से स्त्री कि रक्षा करें और अपनी रक्षा धन और स्त्री दोनों से सदा करें।
आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुतआपदः।
कदाचिच्चलते लक्ष्मीः सञ्चितोस्पि।।
आपत्ति से बचने के लिए धन कि रक्षा करें, क्योंकि पता नहीं कब आपदा आ जाये। लक्ष्मी तो चंचल है। संचय किया गया धन कभी भी नष्ट हो सकता है।
यास्मीन देशे न सम्मानों न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्यागमः कश्चित् तं देशं परिवर्जयेत।।
जिस देश में सम्मान नहीं, आजीविका के साधन नहीं, बंधु -बांधव अर्थात परिवार नहीं और विद्या प्राप्त करने के साधन नहीं हो, वहाँ कभी नहीं रहना चाहिए।
धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत।।
जहाँ धनी, ज्ञानी, राजा, नदी और वैद्य यर पाँच न हों, वहाँ एक दिन भी नहीं रहना चाहिए. भावार्थ यह है कि जिस जगह पर इन पाँचो का अभाव हो, वहाँ मनुष्य को एक दिन भी नहीं ठहरना चाहिए।
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कूर्यात तत्र संस्थितिम।।
जहाँ जीविका, भय लज्जा, चतुराई और त्याग कि भावना, ये पाँचो न हों, वहाँ के लोगो के साथ कभी न रहें और न उनसे व्यवहार करें।
जानियात प्रेषणे भृत्यान बंधवान व्यसनागमे।
मित्रं चास्पतिकालेषुः भार्या च विभवक्षये।।
नौकरों को बाहर भेजनें पर, संकट के समय भाई - बंधुओ को तथा विपत्ति मे दोस्त को और धन के नष्ट हो जाने पर अपनी स्त्री को परखना चाहिए अर्थात उसकी परीक्षा लेनी चाहिए।
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।
राजद्वारे श्मशाने च यास्तिष्ठति स बान्धवः।।
बीमारी मे, विपत्ति काल मे, अकाल के समय, दुश्मनों से दुःख पाने या आक्रमण होने पर, राजदरबार मे और श्मशान - भूमि में जो साथ रहता है, वही सच्चा भाई अथवा बंधु है।
प्रेरणादायक स्टोरी
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