Kabir Das - संत कबीर दास जी का पूरा जीवन परिचय

Kabir Das

संत कबीर साहब भक्ति काल के महाकवियों में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखने वाले संत कबीर दास के बारे में हम इस चर्चा करने वाले है , की कबीर दास जी कौन थे ,क्या वे भगवान का अवतार थे ?  कबीर दास जी का जन्म कैसे हुआ ,उनके माता पिता कौन थे ,उन्होंने किस विषय पर अपना पूरा जीवन न्योछावर कर दिया। यही सब बाते आप जानने वाले है । और हाँ आपको कुछ कबीर दास जी के सुप्रसिद्ध दोहे भी बताये जायेंगे तो पड़िए इस पोस्ट को और जाने कबीर दास जी के बारे में ।
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कबीर दास जी के विचार [Thoughts Of  Kabir Das Ji]

कबीर दास जी भक्तिकालीन निर्गुण धरा के ज्ञानमार्गी शाखा (जो केवल ज्ञान को ही भक्ति मानते है ?)  के  कवि माने जाते है। कबीर दास जी एक महान भक्त भी है। 

कबीर दास जी को समाज सुधारक के रूप में भी मान्यता प्राप्त है उन्होंने मनुष्य समाज में चल रही अनेक कुरीतियाँ , एवं बाहरी आडम्बरो , कुप्रथा जैसे दहेज़ प्रथा ,स्त्री की सती प्रथा , तथा भक्ति मार्ग  में अनैक नियम आदि का खंडन किया है। 

कबीर दास जी को धर्म प्रचारक भी कहा जाता है उन्होंने धर्म की एक ऐसी नींव रखी जो आज भी कोई असत्य साबित नहीं कर सकता है।  कबीर  ने मूर्ति पूजा का भी बहुत विरोध किया है। उनका मानना था की भगवन मूर्ति  की पूजा करके नहीं बल्कि ज्ञान तत्व से जान कर प्राप्त होते है। 

समाज  में व्याप्त वैषम्य ,अंधविश्वाश और उसकी प्रवृतियों पर उन्होंने व्यंग्य का प्रहार किया है , और उनको झूठा साबित  किया है। 

वे निराकार  ईश्वर को मानते थे मूर्ति पूजा का तो उन्होंने हमेशा खंडन किया है  .वे ईश्वर की प्राप्ति के लिए ज्ञान को साधन मानते थे। उन्होंने योग - साधना के गूढ़ रहस्यो को भी अपने दोहे एवं कविताओं में प्रस्तुत किया है। 

निराकर ईश्वर को पाने के लिए वे इन्द्रिय संयम ,ज्ञान मार्ग तथा योग साधना को महत्वपूर्ण मानते थे। प्रेम की अपार अनुभूति भी उनके काव्य में स्पष्ट रूप से प्राप्त होती है। 

नाम महिमा ,गुरु का महत्व ,सदाचार आदि विषयो पर केंद्रित रचनाये कबीर के काव्य को संत सौंदर्य से भी अनुप्रमाणित भी करती है। 

कबीर जी की मान्यता थी की जिनका कर्म अच्छा ऊँचा होता है वही बड़ा कहा जा सकता है ,जाती से कोई ऊँचा - निचा नहीं होता है। ज्ञान से ही व्यक्ति की पहचान होती है।

इस पर भी कबीर जी ने एक साखी कही है।
जात न पूछिए साध की , पूछ लीजिये ज्ञान। 
मोल करो तलवार का ,पड़ी रेन दो म्यान ।। 

कबीर दास जी की भाषा खिचड़ी भाषा है। अपने देश में अनेक जगह पर यात्रा करने के कारण उन्होंने कई जगह से भाषाओ को ग्रहण किया है और वहां की वाणी से परिचित हुए है। वहाँ के शब्दों को भी ग्रहण करते रहे ,यही कारण है की उनकी  भाषा में अनके बोलियों के शब्द होए है । 

उनके प्रतिक ,रूपक तथा अन्योक्ति काव्य - साहित्य की धरोहर है । उनके काव्य अधिकतर अन्योक्ति के द्वारा ही प्रस्तुत किये है । जैसे :- 
माली आवत देखकर ,कलियन करी पुकारी। 
फुले - फुले चुन लिए काल ही हमारी बारी।।

कबीर दास के इस दोहे में माली ,कलि ,फूल ,और कल की बात करी है ,पढने से तो यह ऐसा लगता है जैसे किसी बाग़ या बगीचे की बात हो रही की माली को आते देख कलियाँ कहा रही की की फूलो को तो चुन कर तोड़ लिया और कल हमारी बारी है। 


दोहे की व्याख्या :- उपरोक्त दोहे में कबीर दास जी ने अन्योक्ति का प्रयोग किया है , जैसे :- माली का अभिप्राय काल  या यम से है , और कलि का मतलब युवा पीढ़ी से है । और फूलो का मतलब बुढो से है । 

जिस प्रकार माली रूपी काल , फूल रूपी बूढ़े व्यक्ति को तोड़ कर अपने साथ ले जाता है। उसी प्रकार यह चक्र चलता रहता है और एक दिन वही कलि रूपी जवान व्यक्ति भी एक दिन बुढा हो जाता है और काल का ग्रास बन जाता है और इस दुनिया से चला जाता है । 

Kabir Das In Hindi [कबीर दास जी का जीवन परिचय]

कबीर दास के जीवन परिचय को  हम चार भागो में बाँटते है 

  1. कबीर दास का जन्म 
  2. कबीर की  शैक्षिक योग्यता 
  3. कबीर दास की मृत्यु 
  4. कबीर दास की रचनाएँ एवं भाषा 
  5. कबीर से सम्बंधित कहनियाँ  पर उनकी जीवन शैली 
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Kabir Das Ki Biography

कबीर का जन्म

वैसे तो कबीर के जन्म को लेकर आज तक स्पष्ट रूप से कोई व्यख्या नहीं कर पाया है । न ही उनके माता - पिता का कोई प्रमाण है कई लोगो का मानना है की कबीर जी ने जन्म नहीं लिया वे धरती पर अजन्मे ही अवतरित हुए है। 

लेकिन कुछ का मानना है कबीर का जन्म हुआ है यह पहेली अभी तक अनसुलझी ही है , इसे कोई नहीं सुलझा सका है 

ऐसा माना जाता है की कबीर का जन्म बनारस में विक्रम संवत 1455 ई. (सन 1398 लगभग) में हुआ था  निरु तथा नीमा नामक दंपती उनके माता पिता माने जाते है।  उन्होंने कबीर को बनारस के लहरतारा तालाब के किनारे पाया था । इनकी ममता के छाँव में ही कबीर दास का पालन पोषण हुआ था ।

कबीर का परिवार व्यवसाय से जुलाहा था । वे कपडा बुनने का कार्य करते थे ।

कबीर जी कर्म योगी थे , वे कर्म को प्रधान मानते थे ।

कबीर का विवाह पत्नी और पुत्र :


वैसे तो कबीर जी भक्ति का रंग चढ़ने के कारण विवाह नही करना चाहते थे ,परंतु समाज फैले इस अंधविश्वास के कारण की भक्ति करने के लिए घर परिवार को त्यागना पड़ता है ,सन्यासी वेश भूषा धारण करनी पड़ती है , इन सब बातों को झूठा साबित करने के लिए उन्होंने विवाह किया । और अपनी बातों एवं सिद्धान्तों पर खरे भी उतरे।

कबीर दास की पत्नी का नाम लोई था । उनकी दो संतान भी हुई पुत्र का नाम कमाल था एवं पुत्री का नाम कमाली था।


कबीर की शिक्षा


कबीर ने किसी आश्रमं या किसी विद्यालय से शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, उन्होंने स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु बनाया था , और वे उनके परम शिष्य भी बने। बाद में कबीर जी ने रामानंद जी को ही अपना शिष्य बना  लिया 


इसका रहस्य जानने के लिए आगे पढ़ते रहिये।


कबीर दास की मृत्यु

कबीर दास की मृत्यु को लेकर भी एक रोचक बाद सामने आती है की कबीर दास को अपने अंतिम क्षणों का पता चल गया था। 

वैसे तो कबीर दास जी काशी में ही रहते थे ,काशी में ही उनका निवास स्थान था । ऐसी मान्यता है की काशी में प्राण त्यागने वाले व्यक्ति को मुक्ति मिल जाती है । वह जन्म - मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है । 

इसी कारण जब कबीर जो को अपने आखरी समय का पता लगा तो वे काशी को छोड़कर मगहर चले गए। 
ऐसा माना जाता है की मगहर में प्राण त्यागने वाले व्यक्ति को नर्क की घोर यातनाये भोगनी पड़ती है और उसे कभी मुक्ति भी नहीं मिलती। 

किन्तु कबीर दास जी तो अपनी भक्ति को ही मुक्ति का साधन मानते थे उनका कहना था की भक्ति के द्वारा ही मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है

इस बात को ही सच करने के लिए कबीर दास जी ने मगहर में प्राण त्यागे थे। 

चाहे काशी में मरो या मगहर में अपने - अपने कर्मो के अनुसार उन्हें स्वर्ग और नरक प्राप्त होते है। 

कबीर का देहावसान विक्रम संवत 1551 ई.  ( सन 1494  )  में उत्तरप्रदेश के मगहर में हुआ था।  

मान्यता है की कबीर जी के मरने के बाद उनका शरीर उस स्थान से गायब हो गया था। और वहाँ पर केवल फूल ही फूल बचे थे ,जिनको हिन्दू और मुस्लिम समाज ने आधे आधे बाँट लिए और ले गए थे । 

कबीर दास की रचनाएँ एवं भाषा  :-

कबीर दास की रचनाओं में कई प्रकार की भाषाएँ मिलती है उन्होंने किसी एक भाषा में अपने काव्य नहीं , उनकी भाषा में ब्रज ,अवधी ,राजस्थानी ,खड़ी बोली ,पंजाबी , हरयाणवी ,आदि भाषाओं का समावेश है।

इन सब भाषा के मिलावट होने के कारन कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी ,खिचड़ी ,पंचमेल आदि कहा जाता है।

कबीर ने कोई लिखित रचना नहीं की है केवल उनकी वाणियाँ है , उनके परलोक जाने के बाद उनके अनुयायियों उनकी वाणियों का संग्रह किया और उसे एक ग्रन्थ का रूप दिया जिसे हम कबीर का ग्रन्थ " बिजक " कहते है

बीजक ग्रन्थ को मुख्य तीन भागो में विभाजित किया गया  है -

  • साखी 
  • सबद [ पद  ]
  • रमैनी  

1.  कबीर की सखियाँ [ Kabir ki Sakhiyan ]

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Kabir Das ki Sakhi


कबीर की साखी शब्द को संस्कृत भाषा से लिया गया है जिसका शब्दि अर्थ "साक्षी " होता है। इसका अधिकतर उपयोग धर्म के उपदेश देने के लिए किया गया है। कबीर की साखी अधिकतर दोहा छंद में लिखी गयी है परन्तु कहीं - कहीं इसमें सोरठा का भी उपयोग किया गया है। 

कबीर की शिक्षा का प्रचार अधिकांशत: साखी में ही किया गया है । 

कबीर की प्रसिद्ध साखी के कुछ  उदहारण : 
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सबद [ पद  ] : 

सबद को गेय पद कहा जाता है ,क्योकि इसे गाकर बताया जाता है ,इसमें संगीत विध्यमान होता होता है। इसे एक लय में गाया जाता है। इसमें उपदेश के स्थान पर भावना की प्रधानता होती है। क्योंकि इसमें कबीर ने अपना प्रेम प्रगट किया है।

कबीर के सबद का उदाहरण  
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रमैनी 

रमैनी को चौपाई छंद का प्रयोग किया गया है। इसमें कबीर ने अपने रहष्यमयी एवं दार्शनिक विचारो को अभिव्यक्त किया है। रमैनी को बीजक की प्रस्तावना भी कहते है। इसमें कबीर दास जी ने हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख आदि धर्मो को सामान रूप से धार्मिक शिक्षा  है। रमैनी में 84 पद बताये गए है। 


कबीर दास जी के दोहे [Kabir Das Ke Dohe]

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Kabir Das Ke Dohe


दुर्बल को न सताइए ,जाकी मोटी हाय। 
मरी चाम की स्वांस से ,लौह भसम हुई जाय ।। 


अर्थ :- दुर्बल  व्यक्ति को नहीं सताना चाहिए ,क्योकि अगर कोई  दुर्बल दुःखी होकर श्राप देता है तो ,उसका श्राप  फलित हो जाता है ,और व्यक्ति का विनाश इस प्रकार हो जाता  है जिस प्रकार लौहार चमड़े से की फुकनी से लौहे को  पिघला देता है ,एवं उसे भस्म कर देता है  । 

साईं इतना दीजिये ,जामैं कुटुम समाय। 
मैं भी भूखा ना रहूँ ,साधु न भूखा जाय।।


अर्थ :-  कबीर दास जी भगवान से  केवल  इतना ही धन की माँग कर रहे ,जितने  से वे उनका परिवार का पालन - पौषण कर सके। और यदि उनके घर कोई साधु -संत या व्यक्ति आ जाए तो  वो उनके घर से भूखा न  लौटे। 
क्योंकि यदि  व्यक्ति के पास अधिक धन हो  जाता है ,तो  धन के मद में चूर होकर वह  अपने विनाश की  और बढ़ने लगता है। 

जाती हमारी आत्मा ,प्राण हमारा नाम। 
अलख हमारा इष्ट है ,गगन हमारा ग्राम।। 

अर्थ :- कबीर इस दोहे में  कबीर दास जी ने  शरीर में विद्यमान आत्मा को जाती बताया है  , और स्वयं  को प्राण बताया है।  कबीर दास जी के ईश्वर सबसे  निराले है  उनका गुणगान करना हर किसी के  भाग्य ने नहीं होता है ,जिन पर उनकी कृपा  होती है  उनको वो पल भर में मिल जाते  है ।

यहाँ  गगन हमारा  ग्राम से कबीर जी का आशय  है  योगियों के प्राण ब्रम्हांड ( सातवां चक्र  सहस्त्रार ) में निवास करते  है  , अतः उनका गाँव  गगन में  है। 

कामी क्रोधी और लालची ,इनसे भक्ति न होय। 
भक्ति करे कोई शूरमाँ , जाती वरण कुल खोय।।

अर्थ :- कबीर  दास जी के अनुसार काम  वासना में रत ,अधिक क्रोध करने वाला एवं लालच  करने वाला व्यक्ति कभी  भी भगवान की भक्ति नहीं कर सकता। भक्ति  तो लाखों -करोड़ो में कोई विरला  (दुर्लभ )  व्यक्ति ही कर  सकता है ,जो अपनी जात ,वरण ,और परिवार को  भूलकर  भगवान में आपने ध्यान लगता है। 

नोट :- यहाँ पर परिवार को भूलने से मतलब  परिवार को छोड़ना नहीं है ,कुछ  समय परिवार से मन को हटा कर  भगवान में लगाना  इसका अर्थ  है। 

ऊँचै कुल में जनमियाँ ,जे करणी ऊँच न होई। 
सोवन कलस सुरै भरया ,साधू निंध्या सोइ।।


अर्थ :- कबीर दास जी का कहना है की ऊँचे कुल ( परिवार :- जैसे  ब्राम्हण  ) के घर में जन्म लेने से भी कोई  लाभ नहीं  है , यदि करनी (कार्य ) अच्छे नहीं किये तो ,जिस प्रकार  कलस सोने का हो लेकिन उसमे  सूरा (मदिरा ,शराब ) भरी  हो तो ,संत ,सज्जन लोग  उसे  अपवित्र ही  मानते है। 

  तरवर तास बिलंबिए ,बारह मास फलंत। 
सीतल छाया गहर फल ,पंखी केलि करंत।।


अर्थ :-  कबीर  जी का कहना है की उस वृक्ष के निचे विश्राम करना चाहिए ,जिस  पर  वर्ष के  प्रत्येक माह फल लगते हो ,और जिस पेड़ के पर की छाँव  गहरी हो ,एवं जिस पर पक्षी  किलकारी मारते एवं  चहचहाते है। ऐसा  वृक्ष बहुत ही आनंद प्रदान करता है। 

जब गुण कूँ गाहक मिलै ,तब गुण लाख बिकाइ। 
जब गुण कौं गाहक नहीं ,कौड़ी बदलै जाइ।।

अर्थ :- कबीर  दास जी  कहते  है की ,अच्छे गुणों का महत्व तभी है जब उसका ग्राहक (गुणों की परख करने वाला ) मिले । अन्यथा मूर्खो के सामने कितने भी उपदेश दे दो ,वे उनको कौड़ी के सामान ही समझते है।
इसलिए विद्वान् लोग मूर्खो से बहस नहीं करते है।  

सरपहि दूध पिलाइये ,दूधैं विष हुई जाइ। 
ऐसा कोई ना मिलै ,सौं सरपैं विष खाइ।।

अर्थ :-सर्प (साँप ,नाग ) को दूध पिलाने से कोई लाभ नहीं है ,क्योकि इससे दूध भी विषैला हो जाता है , दुनियाँ ऐसा कोई व्यक्ति नहीं देखा जो विष का पान करे। 

नोट :- भगवान शंकर ने संकट से निवारण के लिए विष पिया था और मीरा बाई में प्रभु भक्ति में लींन  विष पिया था। जो साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं। 

करता केरे बहुत गुणं ,आगुणं कोई नांहि। 
जे दिल खोजौं आपणौं,तो सब औंगुण मुझ मांहि।।

अर्थ:- कर्ता (करने वाला ) में बहुत सारे गुण विद्यमान होते है, किन्तु अवगुण कोई भी नही होता है । जब कबीर जी अपने आप मे ही गुणों को देखते है तो कहते है कि सारे अवगुण तो मुझमें ही है ।
   
जात हमारी ब्रम्ह है ,मात - पिता है राम।
गृह हमारा शून्य है। अनहद में विश्राम।।

अर्थ:- कबीर जी आत्मा का संबोधन करते हुए कहते है कि उनकी जात ब्रम्ह के सामान है ,माता-पता एक परमतत्व ईश्वर है ,घर शुन्य अर्थात निराकार ,और भगवान के हाथो में स्थित शंख (अनहद ) में ठहराव है।  

कबीर से सम्बंधित ज्ञानवर्धक कहानियाँ [KABIR DAS STORY]

कबीर दास के जीवन से सम्बंधित बहुत से तथ्य ऐसे है जो बहुत काम लोगो को पता है। उन्ही में से हम कुछ तथ्यों और जीवन शैली को आपके सामने प्रस्तुत कर रहे है। 

कबीर की अपने मन पर विजय :

एक बार जब कबीर दास जी बाजार के बीच से गुजर रहे थे तब उन्हें  जलेबी की दुकान दिखाई दी ,तो उनका जलेबी खाने का मन हो गया।  कबीर जी कुछ देर तक तो उस दुकान के सामने खड़े रहे फिर उन्होंने जलेबी की दुकान से जलेबी खरीदी और आगे चल दिए । एक वृक्ष के निचे जाकर बैठ गए । 

उन्होंने उन जलेबी को नहीं खाया और अपने मन से कहने लगे की है मन यह तो तेरा काम है जलेबी खाना।  तेरी ही इच्छा थी जलेबी खाने की इसलिए मेने तेरे लिए जलेबी खरीदी है । 

कबीर का मन बार - बार जलेबी खाने को करता लेकिन कबीर जी अपने मन से बार - बार अपने मन से यही कहते की यदि तुम जलेबी खाना ही चाहते हो, तो मेरे शरीर से बहार निकला कर खा सको तो खा लो ।

ऐसा बार - बार करने से कबीर जी की जलेबी खाने की इच्छा समाप्त हो गयी और उन्होंने उन जलेबियो को नहीं खाया । जलेबिया उनके सामने ऐसी ही पड़ी रही और कबीर जी मन से लड़ाई करने लग गए ।

कुछ देर बाद एक कुत्ता आया और उन सारी जलेबियों को खाकर चला गया । कबीर जी को मन को समझाने की धुन में पता ही नहीं चला। 

इस प्रकार बार - बार मान को मारने के कारण कबीर जी ने अपने मन पर काबू पा लिया और मन से जित गए । 

कबीर ने रामानंद को गुरु कैसे बनाया ?

जब शुरुवात में कबीर जी ने रामानंद जी को कहा की मुझे अपना शिष्य बना लीजिये लेकिन रामानंद जी ने कबीर को शिष्य बनाने से मन कर दिया। कबीर ने भी ठान लिया की गुरु बनाऊंगा तो रामानंद जी को ही।  

स्वामी रामानंद को गुरु बनाने के लिए कबीर दास ने एक युक्ति अपनायी। उन्हें पता था की महाराज रामानंद जी प्रातकाल में   4  बजे गंगा जी के घाट पर स्नान करने जाते है ।

तब रास्ते में सीढ़ियों पर लैट जाऊंगा और जैसे ही गुरुदेव मुझे लातो से स्पर्श करेंगे में उनके पाँव पकड़ कर उन्हें गुरु बना लूंगा। 

कबीर ने ऐसा ही किया गुरु रामानंद जी के आने से पहले ही कबीर जी रात्रि के आधे पहर में आकर ही सीढ़ियों पर लेट गए।

जब गुरु रामानंद जी स्नान के लिये गंगा जी के घाट पर आए तो रात्री में अंधेरा होने के कारण उन्होंने कबीर को नही देखा और उनकी लात से ठोकर मार दी ।

ठोकर मारते ही रामानंद जी कबीर को कहा : - " अरे बेटा उठो तुम्हे लगी तो नही ? "

बस इतना सुनते ही कबीर जी ने रामानन्द जी के पाँव पकड़ लिये ओर कहा कि मुझे शिष्य बना लीजिये , गुरु रामानन्द जी नही माने उन्होंने कबीर से कहा में तुम्हे अपना शिष्य नही बना सकता ।

में केवल राज परिवार के राजकुमारों को ही अपना शिष्य बना सकता हूँ ।

कुछ देर बाद कबीर जी ने रामानन्द जी से एक प्रश्न पूछा ।

कृपया बताईए की किसी पिता की संपत्ति और ज्ञान पर किसका अधिकार होता है ? इस पर रामानंद जी ने कहा कि किसी भी पिता की सम्पती पर उसके बेटे का अधिकार होता है ।

तो कबीर दास जी ने कहा कि अभी ही आपने मुझे बेटा कहा था , अतः अब आप मेरे पिता हुए अब आपकी संपत्ति और शिक्षा पर मेरा पूर्ण अधिकार है । इस प्रकार कबीर ने अपना अधिकार बता दिया ।

रामानन्द जी कुछ नही कह पाये और अंत मे कबीर जी को अपना शिष्य सस्वीकार करना ही पड़ा।

इस तरह कबीर जी ने स्वामी रामानन्द को अपना गुरु बना लिया और स्वयं उनके बन गए चेले।

कुछ समय पश्चात रामानन्द ने कबीर दास को अपना गुरु बनाया ।

यह जानने ले लिए आगे पढ़ते रहीये ।

कबीर की एक सांस की कीमत :

कबीर दास जी निरंतर भगवान का मन ही मन सुमिरन किया करते थे । हर क्षण केवल भगवान कर नाम ही उनकी सांसो में चला करता था । और ध्यान भी ईश्वर में ही लगा रहता था ।

कबीर दास के माता पिता जुलाहा थे , अतः वे भी कपड़े बुनने ओर कपड़े सिने का कार्य किया करते थे ।

एक दिन कबीर जी कपड़ा सी रहे थे तो सुई से धागा निकल गया । कबीर जी सुई में फिर से धागा पिरोने लग गए लेकिन धागा नही पिरोया गया ।

धागा पिरोते - पिरोते कबीर जी का ध्यान एक पल के लिये भगवान के नाम सुमिरन से हट ओर सुई धागे में लग गया ।

कबीर दास ने अगले ही क्षण ध्यान को फिर से सुमिरन में केंद्रित कर दिया।

जोर- जोर से बिलख -बिलख कर रोने लग गये । जब सब ने  कबीर दास को रोते हुए देखा तो सब पूछने लग गए की तुम क्यों रो रहे हो ?

कबीर ने जवाब दिया के मेरा एक साँस बेकार चली गयी । मेरा ध्यान एक पल के लिए प्रभु से अलग हो गया था। अगर उस समय मेरी मृत्यु हो जाती तो में ईश्वर को क्या मुँह दिखता।

मेरा तो जीवन नष्ट हो जाता मेरी मुक्ति तो टल ही जाती इसलिए मुझे बहुत दुःख हो रहा है ,की मेने एक सुई धागे के कारण अपना ध्यान प्रभु से हटा लिया । एक साँस भी कितनी कीमती  है मैने उसे ऐसे ही जाने दिया।

इस प्रकार कबीर ने साँसो के महत्व को समझाया। और कहा इसकी कीमत कोई नहीं लगा सकता है । इसी के सहारे तो प्रभु का नाम शरीर में चल रहा है।

इस पर कबीर ने एक साखी कही :
निरंजन माला ,घट में फिर है दिन - रात,
ऊपर आवे निचे जावे, साँस - साँस चढ़ जात ।
संसारी नर समझे नाहीं,बिरथा उमर गवात,
निरंजन माला घट में फिर है दिन - रात।     

कबीर ने  अपने गुरु को चेला बनाया .

एक बार कबीरदास को उनके गुरु रामानंद ने आदेश दिया की ने कबीर में किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिये नगर में जा रहा हूँ ,तुम एक काम करना की मेरे आने तक भगवान को कपडे में बांध कर ले जाओ और गंगा जी के स्नान करवा कर ले आना। 

कबीर ने कहा जो आपकी आज्ञा गुरुदेव :-  गुरु जी ने कबीर को मूर्तियाँ दे दी और कहा की जाओ स्नान करवा का ले आओ। कबीर जी मूर्तियों को लेकर गंगा जी के तट पर चले गए। और गुरु जी नगर में चले गए। 

जब गुरु जी कार्य पूरा करके आश्रम में आये तो अपने शिष्यों से पूछा की - कबीर कहाँ है ?

शिष्यों ने कहा -गुरुदेव कबीर तो गंगा के तट पर भगवान् को स्नान करवाने के लिए ले गया। 

गुरु जी ने कहा अरे कबीर अभी तक गंगा तट से नहीं आया ! जाओ जाकर उसे बुलाकर लाओ कहना गुरुदेव बुला रहे है। 

शिष्य कबीर लेने के लिए गंगा तट पर गए और कहा की - तुम्हे गुरु जी बुला रहे है। कबीर ने कहा - अभी भगवान को स्नान करवाने के बाद आ रहा हूँ । 

शिष्यों  ने गुरु रामानंद से आकर सब हाल सुनाया। 

रामानंद जी स्वयं कबीर के पास गंगा तट पर गए उन्होंने कबीर से कहा - कबीर यहाँ क्या कर रहे हो ?

कबीरदास ने कहा - गुरुदेव आपने ही तो कहा था की गंगा तट पर भगवान को स्नान करवाना है  ?

गुरु जी ने कहा - कहाँ है भगवान ?  कबीर दास ने कहा गुरु जी भगवान गंगा में स्नान करने गए है , तो अभी तक बहार नहीं आये , मुझे लगता है की भगवान नदी में ही डूब गए है । 

रामानंद जी ने कबीर को कहा - अरे कबीरा ये तूने क्या कर दिया भगवान को नदी में फेंक दिया । 

कबीर जी ने कहा -  गुरुदेव जब ये पत्थर के भगवान स्वयं एक नदी से नहीं निकल पाए तो आपको और मुझे भवसागर से कैसे पार लगाएंगे। 

इस बात पर कबीर जी और उनके गुरु रामानंद में बहस छिड़ गयी। 

गुरु ने कहा तुमने भगवान का अपमान किया है । भगवान तुम्हे दंड देंगे । कबीर ने कहा गुरु देव मेने भगवान का अपमान नहीं किया है ,मै आपको समझा रहा हूँ की ये पत्थर की मूर्ति भगवान नहीं है।

घट बिन कहूँ ना देखिये राम रहा भरपूर ,
जिन जाना तिन पास है दूर कहा उन दूर। 


भगवान तो आपके घट (शरीर) में विराज मान है। आपको अपने घट की भक्ति करनी चाहिए और अपनी आत्मा में परमात्मा की खोज करना चाहिए। 

इस बात पर रामानंद जी ने कबीर से प्रमाण माँगा की शरीर में भगवान का प्रमाण बताओ। 

कबीर जी ने रामानंद जी के अपने ही शरीर में भगवान के दिव्य प्रकाश के दर्शन करा दिए। 

रामानंद जी प्रकाश में ही मंत्रमुग्ध हो गये। और फिर उन्होंने कबीर जी के पैर पकड़ लिए और उनको अपना गुरु मानने लगे और कहा की आज से में तुम्हारा चेला तुम मेरे गुरु।

फिर कबीर दास जी ने सत्य का प्रचार करने के लिए अपने ही गुरु को चेला बना लिया और उनको गुरु नाम की दीक्षा दी। 

इस प्रकार कबीर जी ने अपने ही गुरु को चेला बनाया । 

कबीर ने अनेक जगह पर असत्य का विरोध किया और सत्य का प्रमाण दिया।

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